Ghazal 33 - वक़्तन फ़वक़तन मुझे अपना रब याद आता है
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Ghazal 33 - वक़्तन फ़वक़तन मुझे अपना रब याद आता है

वक़्तन फ़वक़तन मुझे अपना रब याद आता है ग़र ना हो ज़र ए हयात ख़ुदा कब याद आता है ?
उरूज ए शबाब पे इंसा अपना पिंजरा छोड़ देता है बाद ज़वाल के उसे हिजरत का सबब याद आता है ?
तूने तो अपने क़ानून पे अपना दीन तामीर किया आदम अज़ाब पे अब तुझे आसमानी मज़हब याद आता है ?
मैं उसकी मुहब्बत को इज़्ज़त ए लाइक ना दे सका बाद अज़ विसाल महबूबू के उसका ग़ज़ब याद आता है ?
मैं फ़क़ीर ओ गनी भी मैं सुल्तान ओ मज़लूम भी हूँ तुझे मेरा क़ुव्वत ए दाम देख मेरा नसब याद आता है ?
तू बड़ा ग़ुलाम ए सरकश ए नफ़्स है “अब्दाल” हर दुर्र ए बेअदबी पे तुझे अदब याद आता है ?